कविता










तेइस सितंबर और सन पैंसठ एक सौगात लिए आया,
पितु कैलाश, समुद्री मॉ ने कल का तीर्थंकर पाया।
योग था जिनका योगी बनना कैसे भोगी बन सकते थे,
जिन्हे दूर करना दुख जग का क्यों घर में रह सकते थे।
माया के कीचड़ से उठ कर तोड़ी मोह माया जंजीर,
धर्मपुरे के नीरज बन गए सारे जग के मुनि अतिवीर।
ले दीक्षा सन्मति सागर से निकले महकाने संसार,
गूंज रही दिल्ली नगरी में मुक्त कंठ से जयजयकार।
मानव को वरदान आपका जीवन, दर्शन और चिंतन,
ऐलाचार्य अतिवीर चरण में निर्मल का शतबार नमन।
 
- डॉ. निर्मल जैन (पूर्व न्यायाधीश)
सरिता विहार, दिल्ली