वैशाख
शुक्ला तृतीया को अक्षय तृतीया पर्व मनाया जाता है। इस दिन जैन धर्म के प्रथम
तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान ने राजा श्रेयांस के यहां इक्षु रस का आहार लिया था|
उस दिन राजा श्रेयांस के यहां भोजन, अक्षीण (कभी खत्म न होने वाला ) हो गया था। अतः
आज भी लोग इसे अक्षय तृतीया कहते हैं। जैनधर्म के अनुसार भरत क्षेत्र में इसी दिन
से आहार दान की परम्परा शुरू हुई। ऐसी मान्यता है कि मुनि का आहार देने वाला इसी
पर्याय से या तीसरी पर्याय से मोक्ष प्राप्त करता है। राजा श्रेयांस ने भगवान
आदिनाथ को आहारदान देकर अक्षय पुण्य प्राप्त किया था, अतः यह तिथि अक्षय तृतीया के
रूप में मानी जाती है। यह दिन बहुत ही शुभ होता है, इस दिन बिना मुर्हूत निकाले
शुभ कार्य संपन्न होते हैं।
जम्बूद्वीप
के भरतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत से दक्षिण की ओर मध्य आर्यखण्ड में कुलकरों में
अंतिम कुलकर नाभिराज हुए। उनके मरूदेवी नाम की पट्टरानी थी। रानी के गर्भ में जब
जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आये तब गर्भकल्याणक उत्सव देवों ने बडे़ ठाठ से
मनाया और जन्म होने पर जन्म कल्याणक मनाया। फिर दीक्षा कल्याणक होने के बाद ऋषभदेव
ने छःमाह तक घोर तपस्या की। छः माह के बाद चर्या (आहार) विधि के लिए ऋषभदेव भगवान
ने अनेक ग्राम नगर शहर में विहार किया, किन्तु जनता व राजा लोगों को आहार की विधि
मालूम न होने के कारण भगवान को धन, कन्या, पैसा, सवारी आदि अनेक वस्तु भेंट की।
भगवान ने यह सब अंतराय का कारण जानकर पुनः वन में पहुंच छःमाह की तपश्चरण योग धारण
कर लिया।
अवधि
पूर्ण होने के बाद पारणा करने के लिए चर्या मार्ग से ईर्यापथ शुद्धि करते हुए
ग्राम, नगर में भ्रमण करते-करते कुरूजांगल नामक देश में पधारे। वहां हस्तिनापुर
में कुरूवंश के शिरोमणि महाराज सोम राज्य करते थे। उनके श्रेयांस नाम का एक भाई था
उसने सर्वार्थसिद्धि नामक स्थान से चयकर यहां जन्म लिया था। एक दिन रात्रि के समय
सोते हुए उसे रात्रि के आखिरी भाग में कुछ स्वप्न आये। उन स्वप्नों में मंदिर,
कल्पवृक्ष, सिंह, वृषभ, चंद्र, सूर्य, समुद्र, आग, मंगल द्रव्य यह अपने राजमहल के
समक्ष स्थित हैं ऐसा उस स्वप्न में देखा तदनंतर प्रभात बेला में उठकर उक्त स्वप्न
अपने ज्येष्ठ भ्राता से कहे, तब ज्येष्ठ भ्राता सोमप्रभ ने अपने विद्वान पुरोहित
को बुलाकर स्वप्नों का फल पूछा। पुरोहित ने जबाव दिया - हे राजन! आपके घर श्री
ऋषभदेव भगवान पारणा के लिए पधारेंगे, इससे सबको आनंद हुआ।
इधर
भगवान ऋषभदेव आहार (भोजन) हेतु ईर्यासमिति पूर्वक भ्रमण करते हुए उस नगर के राजमहल
के सामने पधारे तब सिद्धार्थ नाम का कल्पवृक्ष की मानो अपने सामने आया है, ऐसा
सबको भास हुआ। राजा श्रेयांस को भगवान ऋषभदेव का श्रीमुख देखते ही उसी क्षण अपने
पूर्वभव में श्रीमती वज्रसंघ की अवस्था में एक सरोवर के किनारे दो चारण मुनियों को
आहार दिया था - उसका जाति स्मरण हो गया। अतः आहारदान की समस्त विधि जानकर श्री
ऋषभदेव भगवान को तीन प्रदक्षिणा देकर पड़गाहन किया व भोजन गृह में ले गये।
‘प्रथम
दान विधि कर्ता’ ऐसा वह दाता श्रेयांस राजा और उनकी धर्मपत्नी सुमतीदेवी व ज्येष्ठ
बंधु सोमप्रभ राजा अपनी लक्ष्मीपती आदि ने मिलकर श्री भगवान ऋषभदेव को सुवर्ण
कलशों द्वारा तीन खण्डी (बंगाली तोल) इक्षुरस तो अंजुल में होकर निकल गया और दो
खण्डी रस पेट में गया। इस प्रकार भगवान ऋषभदेव की आहारचर्या निरन्तराय संपन्न हुई।
इस कारण उसी वक्त स्वर्ग के देवों ने अत्यंत हर्षित होकर पंचाश्चर्य (रत्नवृष्टि,
गंधोदक वृष्टि, देव दुंदुंभी, बाजों का बजना व जय-जयकार शब्द होना) वृष्टि हुई और
सभी ने मिलकर अत्यंत प्रसन्नता मनाई।
आहारचर्या
करके वापस जाते हुए ऋषभदेव भगवान ने सब दाताओं को ‘अक्षय दानस्तु’ अर्थात् दान इसी
प्रकार कायम रहे, इस आशय का आशीर्वाद दिया, यह आहार वैशाख सुदी तीज को सम्पन्न हुआ
था। जब ऋषभदेव निरंतराय आहार करके वापस विहार कर गए उसी समय से अक्षय तीज नाम का
पुण्य दिवस (जैनधर्म के अनुसार) का शुभारंभ हुआ। इसको आखा तीज भी कहते हैं। यह दिन
हिन्दू धर्म में भी बहुत पवित्र माना जाता है। इस दिन अनबूझा मुर्हूत मानकर शादी,
विवाह एवं मंगलकार्य प्रचुर मात्रा में होते हैं।
जैनधर्म
में दान का प्रवर्तन इसी तिथि से माना जाता है, क्योंकि इससे पूर्व दान की विधि
किसी को मालूम नहीं थी। अतः अक्षय तृतीया के इस पावन पर्व को देश भर के जैन
श्रद्धालु हर्षोल्लास व अपूर्व श्रद्धा भक्ति से मनाते हैं। इस दिन हस्तिनापुर में
भी विशाल आयोजन किया जाता है। इस दिन व्रत, उपवास रखकर इस पर्व के प्रति अपनी प्रगाढ
आस्था दिखाते हैं।
- श्रुत पंचमी - श्री जिनवाणी का महापर्व
भगवान
महावीर के निर्वाण से 683 वर्ष व्यतीत होने पर आचार्य धरसेन हुए| सभी
अंगों ओर पूर्वों का एक देश का ज्ञान आचार्य परम्परा से धरसेनाचार्य को
प्राप्त था|
आचार्य
धरसेन कठियावाड में स्थित गिरनार पर्वत की चान्द्र गुफा में रहते थे| जब
वह बहुत वृद्ध हो गए ओर अपना जीवन अत्यल्प अवशिष्ट देखा, तब उन्हें यह
चिन्ता हुई कि अवसर्पिणी काल के प्रभाव से श्रुतज्ञान का दिन पर दिन ह्रास
होता जा रहा है| इस समय मुझे जो कुछ श्रुत प्राप्त है, उतना भी यदि मैं
अपना श्रुत दुसरे को नहीं संभलवा सका, तो यह भी मेरे ही साथ समाप्त हो
जाएगा| इस प्रकार की चिन्ता से ओर श्रुत-रक्षण के वात्सल्य से प्रेरित होकर
उन्होंने उस समय दक्षिणापथ में हो रहे साधु सम्मेलन के पास एक पत्र भेज कर
अपना अभिप्राय व्यक्त किया| सम्मेलन में सभागत प्रधान आचार्यं ने आचार्य
धरसेन के पत्र को बहुत गम्भीरता से पढ़ा ओर श्रुत के ग्रहण और धारण में
समर्थ, नाना प्रकार की उज्जवल, निर्मल विनय से विभूषित, शील-रूप माला के
धारक, देश, कुल और जाती से शुद्ध, सकल कलाओं में पारंगत ऐसे दो साधुओं को
धरसेनाचार्य के पास भेजा|
जिस
दिन वह दोनों साधु गिरिनगर पहुँचने वाले थे, उसकी पूर्व रात्री में आचार्य
धरसेन ने स्वप्न में देखा कि धवल एवं विनम्र दो बैल आकर उनके चरणों में
प्रणाम कर रहे है| स्वप्न देखने के साथ ही आचार्य श्री की निद्रा भंग हो गई
और ‘श्रुत-देवता जयवंत रहे’ ऐसा कहते हुए उठ कर बैठ गए| उसी दिन दक्षिणापथ
से भेजे गए वह दोनों साधु आचार्य धरसेन के पास पहुंचे और अति हर्षित हो
उनकी चरण वन्दनादिक कृति कर्म करके और दो दिन विश्राम करके तीसरे दिन
उन्होंने आचार्य श्री से अपने आने का प्रयोजन कहा| आचार्य श्री भी उनके वचन
सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और ‘तुम्हारा कल्याण हो’ ऐसा आशीर्वाद दिया|
नवागत साधुओं की परीक्षा
आचार्य
श्री के मन में विचार आया कि पहले इन दोनों नवागत साधुओं की परीक्षा करनी
चाहिए कि यह श्रुत ग्रहण और धारण आदि के योग्य भी है अथवा नहीं? क्योंकि
स्वच्छंद विहारी व्यक्तियों को विद्या पढाना संसार और भय का ही बढ़ाने वाला
होता है| ऐसा विचार करके उन्होंने इन नवागत साधुओं की परीक्षा लेने का
विचार किया| तदनुसार धरसेनाचार्य ने उन दोनों साधुओं को दो मंत्र-विद्याएँ
साधन करने के लिए दीं| उनमें से एक मंत्र-विद्या हीन अक्षर वाली थी और
दूसरी अधिक अक्षर वाली| दोनों को एक एक मंत्र विद्या देकर कहा कि इन्हें
तुम लोग दो दिन के उपवास से सिद्ध करो| दोनों साधु गुरु से मंत्र-विद्या
लेकर भगवान नेमिनाथ के निर्वाण होने की शिला पर बैठकर मंत्र की साधना करने
लगे|
मंत्र
साधना करते हुए जब उनको यह विद्याएँ सिद्ध हुई, तो उन्होंने विद्या की
अधिष्ठात्री देवताओं को देखा कि एक देवी के दांत बहार निकले हुए हैं और
दूसरी कानी है| देवियों के ऐसे विकृत अंगों को देखकर उन दोनों साधुओं ने
विचार किया कि देवताओं के तो विकृत अंग होते ही नहीं हैं, अतः अवश्य ही
मंत्र में कहीं कुछ अशुद्धि है| इस प्रकार उन दोनों साधुओं ने विचार कर
मंत्र सम्बन्धी व्याकरण में कुशल अपने अपने मंत्रों को शुद्ध किया और जिसके
मंत्र में अधिक अक्षर था, उसे निकाल कर, तथा जिसके मंत्र में अक्षर कम था,
उसे मिलाकर उन्होंने पुनः अपने-अपने मंत्रों को सिद्ध करना प्रारंभ किया|
तब दोनों विद्या-देवता अपने स्वाभाविक सुन्दर रूप में प्रकट हुए और बोलीं -
‘स्वामिन आज्ञा दीजिये, हम क्या करें|’ तब उन दोनों साधुओं ने कहा - ‘आप
लोगो से हमें कोई ऐहिक या पारलौकिक प्रयोजन नहीं है| हमने तो गुरु की आज्ञा
से यह मंत्र-साधना की है|’ यह सुनकर वे देवियाँ अपने स्थान को चली गईं|
भूतबली-पुष्पदन्त नामकरण
मंत्र-साधना
की सफलता से प्रसन्न होकर वे आचार्य धरसेन के पास पहुंचे और उनके
पाद-वंदना करके विद्या-सिद्धि सम्बन्धी समस्त वृतांत निवेदन किया| आचार्य
धरसेन अपने अभिप्राय की सिद्धि और समागत साधुओं की योग्यता को देखकर बहुत
प्रसन्न हुए और ‘बहुत अच्छा’ कहकर उन्होंने शुभ नक्षत्र और शुभ वार में
ग्रन्थ का पढाना प्रारंभ किया| इस प्रकार क्रम से व्याख्यान करते हुए
आचार्य धरसेन ने आषाढ़ शुक्ला एकादशी को पूर्वान्ह काल में ग्रन्थ समाप्त
किया| विनय-पूर्वक इन दोनों साधुओं ने गुरु से ग्रन्थ का अध्ययन संपन्न
किया है, यह जानकर भूत जाती के व्यन्तर देवों ने इन दोनों साधुओं में से एक
की पुष्पावली से शंख, तूर्य आदि वादित्रों को बजाते हुए पूजा की| उसे
देखकर आचार्य धरसेन ने उसका नाम ‘भूतबली’ रखा|
तथा
दूसरे साधु की अस्त-व्यस्त स्थित दन्त पंक्ति को उखाड़कर समीकृत करके उनकी
भी भूतों ने बड़े समारोह से पूजा की| यह देखकर धरसेनाचार्य ने उनका नाम
‘पुष्पदन्त’ रखा| अपनी मृत्यु को अति सन्निकट जानकर, इन्हें मेरे वियोग से
संक्लेश न हो यह सोचकर और वर्षा काल समीप देखकर धरसेनाचार्य ने उन्हें उसी
दिन अपने स्थान को वापिस जाने का आदेश दिया|
यद्यपि
वह दोनों ही साधु गुरु के चरणों के सान्निध्य में कुछ अधिक समय तक रहना
चाहते थे, तथापि ‘गुरु वचनों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए’ ऐसा विचार कर वे
उसी दिन वहां से चल दिए और अंकलेश्वर (गुजरात) में आकर उन्होंने वर्षाकाल
बिताया| वर्षाकाल व्यतीत कर पुष्पदन्त आचार्य तो अपने भान्जे जिनपालित के
साथ वनवास देश को चल दिए और भूतबली भट्टारक भी द्रमिल देश को चले गए|
महापर्व का उदय
तदनंतर
पुष्पदन्त आचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर, गुणस्थानादि
बीस-प्ररूपणा-गर्भित सत्प्ररूपंणा के सूत्रों की रचना की और जिनपालित को
पढाकर उन्हें भूतबली आचार्य के पास भेजा| उन्होंने जिनपालित के पास
बीस-प्ररूपणा-गर्भित सत्प्ररूपंणा के सूत्र देखे और उन्ही से यह जानकर की
पुष्पदन्त आचार्य अल्पायु हैं, अतएव महाकर्म प्रकृति प्राभृत का विच्छेद न हो जाए, यह विचार कर भूतबली ने द्रव्य प्रमाणनुगम को आदि लेकर आगे के ग्रंथों की रचना की|
जब
ग्रन्थ रचना पुस्तकारुड़ हो चुकी तब जयेष्ट शुक्ला पंचमी के दिन भूतबली
आचार्य ने चतुर्विध संघ के साथ बड़े समारोह से उस ग्रन्थ की पूजा की| तभी
से यह तिथि श्रुत पंचमी के नाम से प्रसिद्ध हुई| और इस दिन आज तक जैन लोग
बराबर श्रुत-पूजन करते हुए चले आ रहे है| इसके पश्चात् भूतबली ने अपने
द्वारा रचे हुए इस पुस्तकारुड़ षट्खण्डरूप आगम को जिनपालित के हाथ आचार्य
पुष्पदन्त के पास भेजा| वे इस षट्खंडागम को देखकर और अपने द्वारा प्रारंभ
किये कार्य को भली भाँती संपन्न हुआ जानकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने
भी इस सिद्धांत ग्रन्थ की चतुर्विध संघ के साथ पूजा की|
मालवा
देश की उज्जैन नगरी में राजा श्रीधर्म का राज्य था| उसके चार मंत्री -
बलि, नमुचि, बृहस्पती, प्रह्लाद जैन धर्म के कट्टर शत्रु थे|
उसी
समय उस नगर में “अकम्प्नाचार्य” जैन मुनि अपने 700 शिष्यों सहित पधारे और
उसके पश्चात् उन्हें ज्ञात हुआ कि चरों ही मंत्री जैन धर्म के द्वेपी और
अभिमानी हे| अतः गुरु जी ने सभी शिष्यों को निर्देश दिया कि यदि राजा और
मंत्री यहाँ आये तो मौन रहें|
उस
समय मुनि श्री श्रुत सागर जी महाराज आहार के लिए गए थे अतः उन्हें यह
आज्ञा नहीं सुनी| उसी समय राजा ने मंत्रियो को कहा कि राज्य में दिगम्बर
मुनि पधारे हैं तो हम भी उनके दर्शन हेतु जायेंगे| तब उन मंत्रियो ने
महाराज जी के बारे मे बहुत निंदा की| लेकिन राजा ने मंत्रियो की बात ना
मानकर वहा चलने की इच्छा प्रगट की और रास्ते में मंत्रीगण मौका पाकर महाराज
जी की बहुत ही निंदा करने लगे| उसी समय मुनि श्रुत सागर जी महाराज ने ये
सारी बाते सुन ली और कहा कि आपको अपनी विद्वता का बहुत ही गर्व हैं तो हम
से शास्त्रार्थ करो| तब उनके बीच में बहुत विवाद हुआ और अंत में मंत्रियो
को पराजित किया| और मुनि श्री वहा से वन की और चल दिए और अपने गुरूजी से
सुब कुछ बता दिया| तब उनके गुरूजी ने उनको बताया कि उन लोगो से आपने विवाद
करके ठीक नहीं किया|
मंत्रियो
ने अपने पराजित होने का बदला लेने के लिए रात के समय में जहा महाराज जी
रुके थे वहा तलवार लेकर उन पर उपसर्ग करने के लिए गए| लेकिन वन रक्षक देव
ने उसी समय उन्हें रोक दिया| जब सुबह राजा एवं सम्पूर्ण प्रजा ने यह देखा
तो उन्होंने अपनी मंत्रियो की बहुत निंदा की और उन्हें शूली पर चढाने का
निर्णय किया| परन्तु महाराज जी ने उन्हें इतना बड़ा दंड देने के लिए मना
किया फलस्वरूप राजा ने मंत्रियो का देश निकाला दिया| वह चारों मंत्री किसी
और राज्य के राजा के वहा नौकरी करने लग गए|
उस
राज्य का राजा काफी चिंतित था| एक दिन मंत्रियों ने राजा से उनकी चिंता का
कारण पूछा| राजा ने अपने शत्रु के बारे में बताया और मंत्रियों ने उस
शत्रु को छल-कपट से पकड़कर राजा के सामने प्रस्तुत किया| राजा ने उन्हें
प्रसन्न होकर पुरस्कार देना चाहा| परन्तु उन्होंने बोला की हम यह पुरस्कार
आरक्षित रखना चाहते है एवं समय आने पर आपसे मांग लेंगे| कुछ समय पश्चात्
अकम्पनाचार्य का 700 मुनियों का संघ विहार करता हुआ उसी नगर में पंहुचा
जहाँ ये चारों मंत्री थे| उन्हें अपने साथ हुए तिरस्कार का स्मरण हो आया
एवं उन्होंने राजा से अपना आरक्षित रखा हुआ इनाम माँगा| मंत्रियों ने राजा
से 7 दिन के लिए राज्य माँगा| अब जो “बलि” मंत्री था वो राजा बन गया उसने
सभी 700 मुनि महाराज जी को कांटेदार पेड़ से घेर लिया और वहा पर भारी धुनी
जलवाई और उसमे हड्डी,चमड़ा आदि का होम किया| सभी महाराज जी ने उसी समय नियम
ले लिए कि जब तक उपसर्ग नहीं टलेगा तब तक आहार का त्याग रहेगा|
उसी
समय मिथिलापुर नगर के वन में श्री सागरचन्द्र नाम के आचार्य को अपने
अवधिज्ञान से पता चला तो उन्होंने अपने ही संघ के क्षुल्लक श्री पुष्पदंत
जी महाराज को आज्ञा दी कि आप श्री विष्णुकुमार मुनि के पास जाकर इस उपसर्ग
को दूर करने के लिए विनती करो| श्री विष्णु कुमार मुनि को विक्रिया रिद्धि
प्राप्त हुई हैं तो केवल वहीँ इस समस्या का समाधान कर सकते हैं| क्षुल्लक
श्री तुंरत ही विष्णु कुमार मुनि के समक्ष सारा वृतांत कहा| तब विष्णुकुमार
मुनिश्री ने जहा बलि राजा दान कर रहे थे वहा ब्राह्मण के वेश में जाकर
उनसे बोला कि मुझे दक्षिणा में सिर्फ तीन कदम पृथ्वी दीजिये| बलि राजा ने
उनसे और कुछ ज्यादा मांगने के लिए आग्रह किया तो विष्णुकुमार मुनि श्री ने
मना कर दिया| और अब विष्णुकुमार मुनि श्री ने अपनी विक्रिया रिद्धि का
प्रयोग करके अपने शारीर को बड़ा बनाकर जमीन नापना शुरू किया तो पहली डग
“सुमेरु पर्वत” पर रखी और दूसरी मनुशोत्तर पर्वत पर रखी| जब तीसरी डग रखने
की जगह ही नहीं रही तो बलि राजा ने बोला की मेरी पीठ पर पैर रख लीजिये| और
पीठ पर पैर रखते ही बलि थर-थर कांपने लगे|
देव,
असुरो, नारद सब यहाँ पे आये और ब्राह्मण वेशधारी मुनि श्री को नमस्कार
करके बोले की आप इन्हें क्षमा कर दीजिये| इतना सुनते ही मुनि श्री ने अपना
असली रूप प्रकट किया और बलि ने सभी महाराज जी का उपसर्ग दूर किया और जैन
धर्म को अपनाकर श्रावक के व्रत भी लिए| ये शुभ समाचार सुनकर ग्रामवासियों
ने सभी महाराज जी की बहुत ही वैयावृत्ति की और उनका स्वास्थ्य ठीक करने की
लिए उपचार किये| सभी श्रावको ने इस दिन सभी महाराजजी को भक्ति भाव से
“आहार” कराकर अपने जन्म को सफल बनाया| यह दिन “सावन सुदी पूनम” का था| इस
दिन ही सभी दिगम्बर मुनि श्री की रक्षा विष्णुकुमार मुनिश्री द्वारा हुई थी
तो इस पवित्र दिन को याद रखने के हेतु सबने परस्पर बड़े ही प्रेम से भारी
उत्साह के साथ हाथ में “सूत के दोरे” का चिन्ह बांधा| तभी से यह “सावन सुदी
पूनम” का पवित्र दिन “रक्षाबंधन” पर्व के नाम से मनाया जाने लगा| उसके
पश्च्यात विष्णुकुमार मुनि श्री ने गुरु जी के समक्ष जा कर अपने दोषों की
आलोचना की और महान तप किया|
- पर्युषण पर्व (दसलक्षण पर्व)
पर्युषण पर्व साल में तीन बार
आते है जो माघ , चैत्र , भाद्प्रद तीनो माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी से
प्रारम्भ होकर चौदश तक चलते है| पर्युषण पर्व (दश लक्षण पर्व) भी एक ऐसा ही
पर्व है, जो आदमी के जीवन की सारी गंदगी को अपनी दश धर्मरूपी तरंगों के
द्वारा बाहर करता है और जीवन को शीतल एवं साफ-सुथरा बनाता है। प्रस्तुत है-
क्षमा आदि दश धर्मों का संक्षिप्त स्वरूप-
उत्तम क्षमा
क्षमा
आत्मा का स्वभाव है| क्षमा स्वभावी आत्मा के आश्रय से आत्मा में जो
क्रोध(गुस्सा) के अभाव रूप शांति-स्वरुप पर्याय प्रकट होती है उसे भी क्षमा
कहतें हैं| आत्मा वैसे तो क्षमा स्वभावी है पर अनादी से आत्मा में क्षमा
के अभावरूप क्रोध पर्याय ही प्रकटरूप से विद्यमान है|
उत्तम मार्दव
क्षमा
के सामान मार्दव भी आत्मा का स्वाभाव है| मार्दव स्वभावी आत्मा के आश्रय
से आत्मा में जो मान के अभाव रूप शांति-पर्याय प्रकट होती है उसे भी मार्दव
कहतें हैं| आत्मा मार्दव स्वभावी है, पर अनादी से आत्मा में मार्दव के
अभाव रूप मान कषाय पर्याय ही प्रकट रूप से विद्यमान है|
उत्तम आर्जव
आर्जव
स्वभावी आत्मा के आश्रय से आत्मा में छल-कपट मायाचार के भाव रूप
शांति-स्वरुप जो पर्याय प्रकट होती है उसे आर्जव कहतें हैं| वैसे तो आत्मा
आर्जव स्वभावी है पर अनादी से आत्मा में आर्जव के अभाव रूप माया कषाय रूप
पर्याय ही प्रकट रूप से विद्यमान है|
उत्तम सत्य
सत्य
धर्म की चर्चा जब भी चलती है,तब-तब प्राय: सत्य वचन को ही सत्य धर्म समझ
लिया जाता है| लेकिन सिर्फ सत्य वचन ही सत्य धर्म नहीं है| आत्म वास्तु के
त्रिकालिक सत्य स्वरुप के आश्रय से उत्पन्न होने वाला वीतराग परिणिति रूप
ही उत्तम सत्य धर्म है|
उत्तम शौच
शुचिता
यानि पवित्रता का नाम शौच है| शौच के साथ लगा ‘उत्तम’ शब्द सम्यगदर्शन की
सत्ता का सूचक है| इसीलिए सम्यग्दर्शन के साथ होने वाली पवित्रता ही उत्तम
शौच धर्म है| शौच धर्म की विरोधी लोभ कषाय मानी गयी है| लोभ को पाप का बाप
कहा जाता है, क्यूंकि संसार में ऐसा कौन सा पाप है जिसे लोभी नहीं करता
हो|.
उत्तम संयम
संयमन
को संयम कहतें हैं| संयमन यानि उपयोग को पर-पदार्थ से समेट कर आत्म-सन्मुख
करना, अपने में सीमित करना, अपने में लगाना. उपयोग की स्वसन्मुख्ता,
स्वलीनता ही निश्चय संयम है| पांच व्रतों को धारण करना, पांच समितियों का
पालन करना, क्रोधादि कसहयों का निग्रह करना, मन वचन कायरूप तीन दंडों का
त्याग करना और पांच इन्द्रियों के विशायों को संयम से जीतना संयम है| संयम
के साथ लगा ‘उत्तम’ शब्द सम्यग्दर्शन की सत्ता का सूचक है| जिस प्रकार बीज
के बिना वृक्ष की उत्पत्ति,स्थिति,वृद्धि और फलागम संभव नहीं है; उसी
प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना संयम की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलागम
संभव नहीं है|
उत्तम तप
समस्त
रागादी परभावों की इच्छा के त्याग द्वारा स्व-स्वरुप में प्रतापन
करना-विजयन करना तप है| तात्पर्य ये है की समस्त रागादी भावों के
त्यागपूर्वक आत्मस्वरूप में - अपने में लीं होना अर्थार्थ आत्मलीनता द्बारा
विकारों पर विजय प्राप्त करना तप है|
उत्तम त्याग
उत्तम
त्याग धर्म की चर्चा जब भी चलती है, तब तब पराया दान को ही त्याग समझ लिया
जाता है| त्याग के नाम पर दान के ही गीत गाये जाने लगते हैं, दान की ही
प्रेरणाएं दी जाने लगती हैं| त्याग एक ऐसा धर्म है, जिसे प्राप्त कर यह
आत्मा अकिंचन यानि अकिन्चन्य धर्म की धारी बन जाती है, पूर्ण ब्रह्म में
लीन होने लगती है, हो जाती है और सारभूत आत्म्स्वभाव को प्राप्त कर लेती
है|
उत्तम आकिंचन्य
ज्ञानानंद
स्वभावी आत्मा को छोड़कर किंचित मात्र भी पर पदार्थ तथा पर के लक्ष्य से
आत्मा में उत्पन्न होने वाले मोह-राग-द्वेष के भाव आत्मा के नहीं हैं- ऐसा
जानना, मानना और ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा के आश्रय से उनसे विरत होना,
उन्हें छोड़ना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है|
उत्तम ब्रह्मचर्य
ब्रह्म
अर्थात निजशुद्धातामा में चरना, रमना ही ब्रह्मचर्य है | ब्रह्मचर्य के
साथ लगा ‘उत्तम’ शब्द भी यहीं ज्ञान करता है की सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान
सहित आत्मलीनता ही उत्तम ब्रह्मचर्य है |
क्षमा
आत्मा का स्वभाव है| क्षमा स्वभावी आत्मा के आश्रय से आत्मा में जो
क्रोध (गुस्सा) के अभाव रूप शांति-स्वरुप पर्याय प्रकट होती है उसे भी क्षमा
कहतें हैं| आत्मा वैसे तो क्षमा स्वभावी है पर अनादी से आत्मा में क्षमा
के अभावरूप क्रोध पर्याय ही प्रकटरूप से विद्यमान है|
क्षमा मांगने
की वस्तु नही बल्कि धारण करने की वस्तु है| क्रोध की ज्वलंत अग्नि को क्षमा
के निर्मल जल से ही शांत किया जा सकता है| जो व्यक्ति क्षमाशील है वही
समाज में उच्च पद प्राप्त कर सकता है तथा सबके दिलों में अपना स्थान बना
सकता है| झुकना
सिर्फ जीवित व्यक्ति के बस का काम है अथवा जो झुकता नहीं है या अकड़ता है
वो केवल एक मुर्दे के समान है| क्षमा को कभी
भी प्रगट नहीं किया जाता| वह तो सदा से हम सब के भीतर विद्यमान है, बस
जरुरत है तो उसके ऊपर चढ़े कषायों के परदे को हटाने की| वर्तमान में हम सब
कषायों को मंद किए बिने ही क्षमा को प्रगट करने की चेष्टा कर रहे हैं|
फलस्वरूप आज तक हम खाली हाथ ही बैठे हैं| क्षमा तो आत्मा का स्वाभाव है अतः
किसी वस्तु को अपने स्वाभाव में आने के लिए कोई कार्य नहीं करना पड़ता|
हमें
पुरुषार्थ करना है तो कषायों को हटाने का, जिससे भीतर बैठी क्षमा स्वतः ही
उत्पन्न हो जाएगी|
हमारे
जीवन के गृहस्थ मार्ग में, ऐसे कई क्षण आते हैं जब हम भगवान महावीर के
उपदेश “अहिंसा परमो धर्म” को भूल जाते हैं। हमने जरूर अपनी वाणी या अपनी
करनी से किसी को कष्ट दिया होगा। क्षमा में आत्मा का सदगुण निहित है। जब
आत्मा अपने वास्तविक स्वभाव से दोषपूर्ण स्वभाव की ओर जाती है, ऐसी आत्मा
आसक्त (रागी) या द्वेषी इत्यादि कहलाती है क्योंकि आत्मा स्वभावगत सामान्य
और क्षमाशील होती है। सही कहा गया है - गलती करने वाला इंसान होता है,
क्षमा करने वाला देव-तुल्य होता है।
संसार
सुख दुःख का बिछौना है तथा इस नश्वर शारीर को प्राप्त प्रत्येक जीव योनी
में विचरती आत्माएं इस चक्र से अछूती नहीं रहती| मानव देह में बुद्धि का
आधिपत्य है तभी तो वेह अन्य जीवों पर शासन करता है| इसी श्रृंखला चक्र में
वेह बुद्धि-बल-अभिमान युक्त होकर अन्य जीवों के साथ दुर्व्यवहार करते हुए
अपनी ही मानव योनी पर अत्याचार करने से नहीं चूकता|
किसी
भी शक्ति को सर्जन या संहार में लगाया जा सकता है| केवल कुछ क्षण के लिए
हृदय में शान्ति को धारण कर लिया जाये तो निःसंदेह हम क्रूरता, हिंसा व भय के घनघोर चक्र से स्वतः
मुक्त होकर अपनी शक्ति को प्रेम-सौहार्द का अनुपम व अक्षय संबल दे
सकते है। इस प्रकार वैमनस्य व घृणा का घनघोर घटा चक्र लुप्त होने में देर न लगेगी। सदव्यवहार व शालीनता के गुणों से सुसज्जित होकर क्षमा भावना आपके
हृदय, मन, बुद्धि व शरीर पर आरूढ़ होकर समाज में बढ़ रहे दुर्गुणों का
स्वतः शमन करती हुई विनय और शालीनता के मार्ग पर निर्विवाद रूप से अग्रसित
होगी| मानव हो तो क्षमा को अंगीकार करो तथा धधकते वैमनस्य का लोप करो|
- दीपावली महापर्व - भगवान महावीर निर्वाण दिवस
त्यौहार
संस्कृति और सभ्यता के प्रतीक है तथा उनका सम्बन्ध भी प्राचीन महत्त्पूर्ण
घटनाओ से जुडा हुआ है| दीपावली हमारे देश का प्रसिद्ध त्यौहार है| सभी लोग
इसे प्रेम और उत्साह से मनाते है| इससे कई धर्मो की कथाये जुडी है| कहा
जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम चन्द्र जी द्वारा दशहरे के दिन
रावण का वध करके इस दिन अयोध्या पधारे थे, पर विद्वानों का मत है कि इसका
कोई शास्त्रीय आधार नहीं है| इसी दिन श्री कृष्ण जी ने नरकासुर का वध किया
था| सत्रहवी शताब्दी में सिखों के छठे गुरु श्री हरगोबिन्द सिंह जी मुग़ल
बादशाह की कैद से छुटे थे| इसी दिन उन्नस्वी शताब्दी में आर्य समाज के
संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने तथा स्वामी रामकृष्ण परम हंस ने शरीर
त्याग किया था| इस प्रकार सभी धर्मो में अपनी-अपनी मान्यतानुसार इस तिथि का
महत्तव है|
मगर
इस पर्व का सीधा और सच्चा सम्बन्ध जैन धर्म के 24वे तीर्थंकर भगवन महावीर
स्वामी जी से है| कार्तिक कृष्ण अमावस्या की सुप्रभात की शुभ बेला में भगवन
महावीर स्वामी ने चारो अघतिया कर्मों को भी नष्ट करके निर्वाण प्राप्त
किया था| भगवान के निर्वाण कल्याणक की इन्द्रादि ने आकर बड़े धूम धाम से
पूजा की थी| सम्राट श्रेणिक आदि नरेन्द्रो ने भी अपनी प्रजा के साथ महान
निर्वाणोत्सव मनाया था| तभी से यह पर्व मनाया जाता है|
जैन
धर्म किसी जाति, वर्ण, संप्रदाय या पंथ विशेष का नाम नहीं है क्योंकि जैन
धर्म का प्रतिपादन करने वाले सभी 24 तीर्थंकर क्षत्रिय थे और उनके अधिकांश
शिष्य ब्राह्मण थे| जैन धर्म उस वस्तु स्वरुप का प्रतिपादन करता है जो
अनादिकाल से है और अनंतकाल तक रहेगा| जैन धर्म प्राणी मात्र का धर्म है|
तीर्थंकर महावीर ने मानव जीवन की प्रत्येक क्रिया को अहिंसा के माप दंड
द्वारा मापा है| एक जन्म की साधना से कोई तीर्थंकर नहीं बन सकता, यह तो
अनेक भवो की साधना का फल है| इस पद को पाना कोई साधारण बात नहीं, इसके लिए
आत्मा का पूर्ण विकास और परम विशुद्धि आवश्यक है| भगवान महावीर का सन्देश
केवल विश्वव्यापी ही नहीं, अपितु सार्वजानिक और सर्वकालिक भी है| उनके
सन्देश को हम यदि संक्षेप में कहे तो विचारो में अनेकांत, वाणी में
स्यादवाद, आचरण में अहिंसा और व्यवहार में अपरिग्रह के रूप में व्यक्त कर
सकते है|
इस
पुनीत भारत वसुंधरा पर अबसे 2600 वर्ष पहले बिहार के कुण्डलपुर ग्राम में
माता त्रिशला (प्रियकरिणी) की कुक्षी से भगवान महावीर ने जन्म लिया था| घर
में रहते हुए भी वर्धमान स्वामी अत्यंत निर्लिप्त रहते थे| कभी-कभी वे भोजन
करते, चलते फिरते हुए भी वे अन्तास्त्तव में निमग्न हुए प्रतीत होते थे|
जब वे सामायिक में होते थे तो उनकी निश्छल शांत मुद्रा देखते ही बनती थी|
अपने जीवन में उन्होंने अहिंसा, विश्वमैत्री और आत्मोद्धार का उत्कृष्ट
आदर्श उपस्थित किया था| वह आजन्म ब्रह्मचारी रहे, 30 वर्ष की भरी जवानी में
उन्होंने दीक्षा ली| 12 वर्ष की कठोर साधना के उपरांत दुर्धर तपकर 42 वर्ष
की आयु में आत्मा के प्रबल शत्रु चार घातिया कर्मो का नाश कर लोका लोक
प्रकाशक केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया और भव्य जीवो को दिव्य-ध्वनी द्वारा
आत्मा के उद्धार का मार्ग बताया| 72 वर्ष की आयु के अंत में कार्तिक कृष्ण
अमावस्या को प्रात: काल मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त किया|
उसी
दिन शाम को भगवान के प्रथम गणधर श्री गौतम स्वामी को केवल ज्ञान प्राप्त
हुआ था| तब देवो ने आकर केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी की पूजा की थी| गणनाम ईशा =
गणेश:, गणधरा ये दोनों पर्यायवाची नाम गौतम स्वामी के ही है| तब से इन
दोनों आत्माओ महावीर स्वामी और गौतम स्वामी की स्मृति में यह दीपावली पर्व
समस्त भारत वर्ष में मनाया जाता है| भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के
उपलक्ष्य में लोग प्रात:काल स्तुति पाठ पढ़ते है| मन्दिर जी में जाकर
निर्वाण पूजा, निर्वाण कांड महावीराष्टक पढ़कर निर्वाण लाडू चढाते है| अपने
घरो को खूब सजाते है, परस्पर मित्रो और सम्बन्धियों में मिठाई बांटते है|
संध्या के समय पूज्य गौतम स्वामी के केवल ज्ञान कल्याणक की ख़ुशी में जलती
दीपो की पंक्तियों से घर के अन्दर और बाहर रौशनी करते है| भजन आरती करके
भगवान के गुणों का गान करते है|
सच्ची
लक्ष्मी तो आत्मा के गुणों का पूर्ण विकास केवल ज्ञान हो जाना तथा मोक्ष
प्राप्ति ही है| हमें उस दिन महावीर स्वामी , गौतम स्वामी और केवल ज्ञान
रूपी लक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए| इन गुणों की पूजा करने से रुपया पैसा आदि
सांसारिक लक्ष्मी प्राप्त होना तो साधारण सी बात है|
जैन
धर्म अहिंसा प्रधान धर्म है| इस धर्म के अनुसार धार्मिक पर्वो की तो बात
ही क्या, लौकिक कार्यो में भी हिंसा को कोई स्थान नहीं है| लोग तो आतिशबाजी
छुडाकर दिवाली मनाते है, मगर इस कार्य में असंख्यात जीवो की हिंसा होना
स्वाभाविक ही है| अत: इस दिन महावीर भगवान के निर्वाण कल्याणक के पावन अवसर
पर आतिशबाजी छुडाना पूर्णतया बंद होना चाहिए|
अहिंसा परमोधर्म: यतोधर्म: सतोजय: !
कुछ
लोग इस पवित्र दिन जुआ खेलते है , यह मिथ्यात्व पोषक कुप्रथा तथा अधार्मिक
प्रवृति है| हमें शास्त्रानुसार सम्यक दर्शन को पुष्ट करने वाली क्रियाओ
द्वारा दीपावली मनानी चाहिए| इस उपर्युक्त उद्देश्य को बहुत लोग जानकार भी
रुपयों-पैसो की पूजा करते है यह उनकी नितांत भूल है| उन्हें यह वास्तविक
रहस्य को समझ लेना चाहिए कि धन का लाभ तो लाभ अन्तराय कर्म के क्षयोप्श्य
से होता है और लाभंतराय कर्म का क्षयोपषम शुभ क्रियाओ से ही हो सकता है|
रुपया पैसो की पूजा से नहीं| दीपावली हमारा राष्ट्रीय पर्व है सभी का
त्यौहार है, अत: हमें इस पर्व को बड़ी श्रद्धा और भक्ति से मनाना चाहिए|
दीपावली पर्व कैसे मनाये
प्रात:
काल स्नानादि करके पवित्र वस्त्र पहनकर जिनेन्द्र देव के मंदिर जी में
परीवार के साथ पहुंचकर, जिनेन्द्र देव की पूजा वंदना करनी चाहिए| भगवान
महावीर स्वामी की पूजन करके, निर्वाण कांड पढने के बाद महावीर स्वामी के
मोक्ष कल्याणक का अर्घ बोलकर निर्वाण लाडू अर्घ सहित चढाना चाहिए|