पूजन



परम पूज्य आचार्य श्री 108 विद्याभूषण सन्मति सागर जी महाराज के शिष्य

आचार्य श्री 108 अतिवीर जी मुनिराज 
की पूजन
 
  (रचयित्री - श्रीमती अरुणा जैन 'भारती', मॉडल टाउन, दिल्ली )


 स्थापना
हे
आचार्य अतिवीर गुरो!, मेरे मन मन्दिर पधराओ|
मैं करता हूँ आह्वान आज, तुम तिष्ट-तिष्ट सन्निधि आओ||
ॐ ह्रीं श्री
आचार्य अतिवीर जी मुनीन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट आह्वाननं|
ॐ ह्रीं श्री
आचार्य अतिवीर जी मुनीन्द्र! अत्र तिष्ट तिष्ट ठः ठः स्थापनं|
ॐ ह्रीं श्री
आचार्य अतिवीर जी मुनीन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट सन्निधिकरणं|

अथाष्टक
तीर्थोदक प्रासुक लिया, कंचन कलश भराय| गुरुपद में धारा करूँ, मन-वच-तन हर्षाय||
हे गुरुवर किरपा करो, करो मेरा कल्याण| रत्नत्रय निधि प्राप्त हो, दो ऐसा वरदान||
ॐ ह्रीं श्री
आचार्य अतिवीर जी मुनिन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामिति स्वाहा|

शीतल चन्दन से करूँ, अर्चन श्री मुनिराज| आप तिरें तारें सभी, गुरुपद धर्म जहाज||
हे गुरुवर किरपा करो, करो मेरा कल्याण| रत्नत्रय निधि प्राप्त हो, दो ऐसा वरदान||
ॐ ह्रीं श्री
आचार्य अतिवीर जी मुनिन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामिति स्वाहा|

तन्दुल धवल अखण्ड ले, पूंजूँ पद मुनिराज| पुंज तीन चरणों धरूँ, आतम हित के काज||
हे गुरुवर किरपा करो, करो मेरा कल्याण| रत्नत्रय निधि प्राप्त हो, दो ऐसा वरदान||
ॐ ह्रीं श्री
आचार्य अतिवीर जी मुनिन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतान निर्वपामिति स्वाहा|   

पुष्प सुगन्धित लेय कर, मुनिवर चरण चढाय| कामवासना शान्त हो, मन स्थिरता आय||
हे गुरुवर किरपा करो, करो मेरा कल्याण| रत्नत्रय निधि प्राप्त हो, दो ऐसा वरदान||
ॐ ह्रीं श्री
आचार्य अतिवीर जी मुनिन्द्राय काम-बाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा| 

व्यंजन प्रासुक शुद्ध ले, शुद्धाहार कराय| क्षुधा शान्त हो मेरी भी, निज में आनन्द पाय||
हे गुरुवर किरपा करो, करो मेरा कल्याण| रत्नत्रय निधि प्राप्त हो, दो ऐसा वरदान||
ॐ ह्रीं श्री
आचार्य अतिवीर जी मुनिन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा|

दीप रतनमय जगमगे, गौघृत लिया भराय| आरती कर मुनिराज की, आनन्द मंगल गाय||
हे गुरुवर किरपा करो, करो मेरा कल्याण| रत्नत्रय निधि प्राप्त हो, दो ऐसा वरदान||
ॐ ह्रीं श्री
आचार्य अतिवीर जी मुनिन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामिति स्वाहा|  

द्रव्य सुगन्धित लेय कर, क्षेपूं गुरुपद पास| कर्म हरूं अपने स्वयं, करूँ निजातम वास||
हे गुरुवर किरपा करो, करो मेरा कल्याण| रत्नत्रय निधि प्राप्त हो, दो ऐसा वरदान||
ॐ ह्रीं श्री
आचार्य अतिवीर जी मुनिन्द्राय अष्ट कर्म दहनाय धूपं निर्वपामिति स्वाहा|

श्रीफल उत्तम लेय कर, गुरुपद भेंट चढाय| शिवफल पाने के लिए, अरज  करूँ मुनिराय||
हे गुरुवर किरपा करो, करो मेरा कल्याण| रत्नत्रय निधि प्राप्त हो, दो ऐसा वरदान||
ॐ ह्रीं श्री
आचार्य अतिवीर जी मुनिन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामिति स्वाहा|
 

जल-फलादि वासु द्रव्य ले, मनहर अर्घ्य बनाय| गुरुपद में अर्पण करूँ, सिद्ध सुगुण प्रगटाय||
हे गुरुवर किरपा करो, करो मेरा कल्याण| रत्नत्रय निधि प्राप्त हो, दो ऐसा वरदान||
ॐ ह्रीं श्री
आचार्य अतिवीर जी मुनिन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा|

जयमाला
हे अतिवीर गुरुवर मुनीश! तुमको शत वन्दन झुका शीश| 

तुम नगन दिगम्बर अविकारी, तुमने मन में समता धारी||
यथाजात रूप है अविनाशी, तुम ज्ञान ज्योति के परकाशी|
तुमने कषायें सब छोड़ी हैं, दृष्टि अन्तर प्रति मोड़ी हैं||
नहीं राग-द्वेष से नाता है, स्वातम निज में सुख पाता है|
मुख मुद्रा है मोहक स्वामी, हम भी तुम चरणन अनुगामी||
तुमने आतम बल प्रगटाया, तुमको शिवपथ ही मन भाया|
तुमने सर्वोच्च चयन कीना, रत्नत्रय को हासिल कीना||
हे मोक्ष मार्ग के पथिक भव्य! तुमने अनुभव कर लिया सत्य|
तुमने धारी अदभुत समता, नहीं रोक सकी माँ की ममता||
महावीर की शिक्षा को माना, निज सम ही सारा जग जाना|
त्रस-थावर के प्रति सदय हिया, षटकाय जीवों को अभय दिया||
दिन रात यही चिन्तन चलता, कैसे वह शाश्वत सुख मिलता|
बस डूबते जाते अन्तर में, हर समाधान पाते निज में||
तुमने तत्वों को जान लिया, जिनवाणी को बहुमान दिया|
पर्याय द्रव्य से जाना है, अरिहन्त रूप सरधाना है||
आतम में ज्ञान खजाना है, केवल उसको प्रगटाना है|
नहीं बाहर से कुछ लाना है, बस अन्तर में ही समाना है||
संयम रथ पर आरूढ़ हुए, द्वादश तप भी अनुकूल हुए|
तुम सहन परिषेह करते हो, वसु कर्मों का मद हरते हो|| 
शिवरमणी तुम पर मुग्ध हुई, तुम गुण मणियों पर लुब्ध हुई|
तुम अपना अमर प्रेम पाओ, 'अरुणा' की शुभेच्छा ले जाओ||
हम भी शिवपथ के अनुगामी, तुम बनो सहाई हे स्वामी|
कहना तो बहुत कुछ चाहता हूँ, शब्दों में बाँध ना पाता हूँ||
मम अन्तर्मन वाँछा जानो, सम्प्रेषण मौन को पहचानो||
ॐ ह्रीं श्री
आचार्य अतिवीर जी मुनिन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्यं निर्वापमिति स्वाहा|

दोहा
चरणों में मुनिराज के, वन्दन बारम्बार|
पूजा से पावन हृदय, रहे सदा अविकार||
इत्याशिर्वाद: पुष्पांजलि क्षिपेत|