लेख




सिसकता महावीर!
- आचार्य अतिवीर मुनि

आज भगवान महावीर जन्म कल्याणक दिवस है| देश भर के प्रत्येक जैन मन्दिर में आज एक उत्सव का माहौल है| कही 2 कि.मी. लम्बी शोभायात्रा निकल रही है तो कहीं पर विभिन्न प्रकार के पाठ व विधान हो रहे हैं| कहीं पर विशाल भण्डारा हो रहा है तो कहीं पर कृत्रिम कुण्डलपुर की रचना हो रही है| कहीं पर विशाल भजन संध्या का आयोजन हो रहा है तो कहीं पर विशाल गोष्टी हो रही है| हर तरफ ख़ुशी का वातावरण है|

लेकिन ये क्या! इतनी ख़ुशी के मौके पर मुझे क्यों किसी की सिसकियाँ सुनाई पड़ रही हैं| क्यों आज किसी के रोने की आवाजें आ रही हैं| क्यों आज किसी की अश्रुधारा मुझे विचलित कर रही हैं| मैंने पहले अपने आसपास देखा कि कहीं कोई जीव किसी परेशानी में तो नहीं| कहीं कोई जीव मेरी वजह से दुखी तो नहीं| लेकिन हर जगह तलाशने के बाद भी मुझे कोई नहीं मिला| लेकिन वह रोने की आवाजें थम ही नहीं रही थीं| बल्कि अब तो और भी बढ़ गई थी| मेरा मन और अधिक विचलित होता जा रहा था| फिर मैंने अपनी आँखें बन्द की और चिन्तन मुद्रा में बैठ गया| चिन्तन में बैठते साथ ही मुझे ऐसा लगा कि मानों मैं किसी और ही दुनिया में पहुँच गया हूँ| अब मुझे वो सिसकियाँ बिलकुल साफ़-साफ़ सुनाई पड़ रही थीं| थोडा आगे बढ़ता हूँ तो क्या देखता हूँ कि एक कोने में हमारे प्रभु श्री महावीर जी रो रहे हैं| पहले तो मुझे यकीन नहीं हुआ, लेकिन यह सच था| प्रभु महावीर लगातार रोए ही जा रहे थे| मैंने सोचा कि आज यह क्या हो रहा है? तीन लोक के नाथ, जिनका नाम लेकर आज पूरी दुनिया दीवानी हुई जा रही है, आज वही इस प्रकार से रो रहे हैं| मैं थोडा उनके नज़दीक गया और उनसे पूछा - हे नाथ! आज इस शुभ अवसर पर आप क्यों रो रहे हैं? आज तो पूरी दुनिया में आपके जन्म कल्याणक की धूम है| हर जगह ख़ुशी का वातावरण है, तो फिर आज क्यों 'जियो और जीने दो' का सन्देश देने वाला लोगों के इतना खुश होने के बाद भी इतना दुखी है| आखिर क्यों?

थोड़ी देर चुप रहने के बाद उन्होंने मुझसे कहा - हे वत्स! आज दुनिया में अपनी हालत को देखकर मुझे रोना आ रहा है| अभी तक तो इस धरती के लोगों ने मुझे अपने दिल से निकालकर मन्दिरों में कैदी बनाकर तालों में जकड रखा था| लेकिन आज तो उन्होंने मुझे वहां से भी उठाकर मेरी इज्ज़त को सरे बाज़ार नीलाम कर दिया है| कौड़ियों के दाम बेच दिया है मेरे उसूलों को, मेरे आदर्शों को इन लोगो ने| वे कहते हैं कि आज 'वर्तमान को वर्धमान' की आवश्यकता है| नहीं, ऐसा नहीं है अपितु 'वर्तमान को वर्तमान के ही वर्धमान' की आवश्यकता है| आज उन्हें एक अलग तरह का वर्धमान चाहिए|

उन्हें चाहिए एक ऐसा वर्धमान जो उन लोगों की पीठ थपथपाए जो समाज में पानी छानकर पीते हों और एकांत में मयखाने में शराब पीते हों| उन्हें वो वर्धमान चाहिए जो मुंह पर जय जिनेन्द्र कहने वालों और पीठ पीछे से छुरा घोपनें वालों की शाबाशी देता हो| वह वर्धमान जो 'जियो और जीने दो' का सन्देश नहीं बल्कि 'मरो और मारने दो' का सन्देश देता हो| उन्हें ऐसा वर्धमान चाहिए जो रात्रि भोजन का त्याग तो कराता हो पर रात्रि विवाह में नाचती बालाओं पर नोटों की बरसात करने की छूट भी देता हो| आजकल के युवाओं को एक ऐसा वर्धमान चाहिए जो मन्दिर में नहीं हो बल्कि मोबाइल या फेसबुक पर उनके साथ चैट कर सके| आजकल की माता-बहनों को एक ऐसा वर्धमान चाहिए जो उनकी पूजा-भक्ति से नहीं अपितु उनके मेकअप और साड़ियाँ देखकर प्रसन्न होता हो| आजकल के आदमियों को तो एक ऐसे वर्धमान की आवश्यकता है जो कम दान में व्यापार में उनके मुनाफे को दुगुना-चौगुना कर सके| आजकल के इन्सान को तो वह वर्धमान चाहिए जो मानवता और नैतिकता की बातों से पहले मोक्ष पहुंचा देता हो| उन्हें ऐसे वर्धमान की आवश्यकता है जो सीधा सिद्धशिला पर विराजमान करा दे| उनको जरुरत है एक ऐसे वर्धमान की, जो मन्दिरों में चमत्कार दिखाता रहे और उन्हीं चमत्कारों के बल पर वह इन्सान धन इकट्ठा करता रहे और अपना घर चलाता रहे| उन्हें आज एक ऐसा वर्धमान चाहिए जो दो तरह का हो - श्वेताम्बर महावीर और दिगम्बर महावीर| आज उनको आवश्यकता है ऐसे महावीर की जो अन्तरंग परिणामों पर नहीं बल्कि सिर्फ बाह्य क्रियाओं पर जोर देता हो और क्रियाएं भी वो हैं जो मानव अपनी सुविधानुसार बदलता रहे|

भाई! अब तुम्हीं बताओ कि मैं रोऊँ नहीं तो क्या करूँ| आज उन्हें वीतरागी महावीर नहीं अपितु एक ऐसा दिखावटी महावीर चाहिए जो कहने को तो वीतरागी हो पर अन्दर वित्त-राग कूट-कूट कर भरा हो| इतना कहने के पश्चात महावीर मौन हो गए और मैं बुरी तरह विचलित हो गया| कुछ समय पश्चात् मेरा ध्यान टूट गया| तत्पश्चात मैं भी बहुत देर तक रोता रहा| मुझे लगा कि वाकई आज हमने महावीर की दुर्दशा कर दी है| जिस महावीर को हमारे दिल में होना चाहिए था, आज उसी को कोई मन्दिरों में जकड रहा है तो कोई चौराहे पर उनके आदर्शों की चिता जला रहा है| मुझे लगा कि वाकई आज हमने उस पुराने महावीर को और उनके विचारों की तिलांजलि दे दी है| मुझे अपने ऊपर बड़ी शर्म आई और मैंने अपने आप को धिक्कारा कि वह त्रिशला नन्दन महावीर हमसे क्या कहकर गए थे और हम किस प्रकार से उनके विचारों को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं| और साथ ही साथ सब कुछ मनमाना करके भी अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद के उनके सिद्धांत को अपना हथियार बनाकर उन्हीं के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं| सच में, आज हमने अपनी सुविधानुसार महावीर को बदल दिया है| धर्म प्रभावना के नाम पर हम ऐसे हथकंडे अपना रहे हैं जो धर्म की प्रभावना तो करते नहीं, हाँ धन की प्रभावना जरुर करते हैं|

इसलिए आज महावीर जन्म कल्याणक के पावन अवसर पर मैं बस इतना कहना चाहता हूँ कि भले ही तुम महावीर के बताए पथ पर नहीं चलना चाहते तो मत चलो, कोई बाधा नहीं| पर कम से कम महावीर को तो ना बदलो| महावीर के आदर्शों, उसूलों, संस्कारों का इतनी सफाई से खून तो मत करो| धार्मिक नहीं बन सकते तो ना बनो लेकिन हैवान भी तो मत बनो| इसलिए अभी भी वक़्त है, चाहो तो एक अच्छा इन्सान बन सकते हो, चाहो तो यह दर्दनाक मंजर बदल सकते हो| अभी भी समय है, आप चाहो तो इस बंजर भूमि पर मानवता के ऐसे पुष्प खिला सकते हो जिनका सौंदर्य और महक पूरी दुनिया को तरोताजा कर देगी और आनन्द से भर देगी| दोस्तों, अगर ये वक़्त हाथ से निकल गया तो हो सकता है महावीर हमें माफ़ कर दे लेकिन हमारी आने वाली सन्तति हमें कभी माफ़ नहीं करेगी| हमारी आत्मा हमें माफ़ करने में संकोच करेगी| सोचो क्या हालत होगी इस मानव की| क्या यह मानव यूँही चारों गतियों की 84 लाख योनियों में भटकता रहेगा| अगर नहीं भटकना चाहते हो तो उठ खड़े हो|

आइये हम सभी मिलकर संकल्प करें कि अपने-अपने भीतर बसे इस महावीर को मरने नहीं देंगे जिसने मानवता का पाठ पढाया था| हम जिन्दा रखेंगे उस महावीर को जिसमे हमें जीना सिखाया था| चलेंगे उसी राह पर, जिस पर महावीर ने चलना सिखाया था| तभी हम सच्चे अर्थों में महावीर जन्म कल्याणक मनाने की पात्रता हासिल कर पाएंगे| तभी हम सच्चे अर्थों में मानव कहलायेंगे| जय महावीर|
अक्षय तृतीया केवल पारणा दिवस नहीं है
- आचार्य अतिवीर मुनि
यह तो सर्व-विदित है कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान को वैसाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीय तिथि को हस्तिनापुर में इक्षु रस का प्रथम आहार प्राप्त हुआ था| उसी दिन से इस शुभ तिथि को अक्षय तृतीया के नाम से पुकारा जाता है| महामुनि ऋषभदेव ने जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार कर सर्वत्र अहिंसा का पाठ पढाया तथा जन मानस के समक्ष त्याग-तपस्या की परिभाषा को लिख डाला| हम सभी ने महामुनि की प्रथम आहारचर्या की ख़ुशी तो मना ली परन्तु क्या कभी इस तथ्य पर गौर किया कि ऐसे महातपस्वी को भी आहार के लिए इतने लम्बे समय के लिए क्यों इंतज़ार करना पड़ा? क्या सदैव तपस्या में संलग्न, सदा कर्मों की निर्जरा में तत्पर महामुनि ऋषभदेव को भी पूर्व में किए गए कर्मों का हिसाब देना पड़ा| शायद हम सभी ने अपनी सुविधा के लिए इन सभी विषयों को गौण कर बस उनकी प्रथम आहारचर्या का उत्सव मना लिया| लेकिन वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता और हमें इसपर चिन्तन अवश्य करना होगा कि कर्मों की मार से कोई भी, कभी भी, किसी भी सूरत में नहीं बच सकता| अक्षय तृतीया केवल महामुनि श्री का पारणा दिवस नहीं है अपितु यह दिवस इस बात का भी द्योतक है कि पूर्व में किए गए कर्म हमारे आगे अवश्य आते है तथा हमें उन सभी का हिसाब-किताब यही पर चुकता करना पड़ता है| राजकुमार अवस्था में श्री ऋषभदेव ने फसल की सुरक्षा के लिए जानवरों के मुख पर छींका बांधने की प्रेरणा दी थी, फलस्वरूप उन्हें छः माह तक आहार प्राप्त नहीं हुआ| अब प्रश्न यह उठता है कि क्या केवल प्रेरणा देने मात्र से इतना कष्ट? जी हाँ, बिलकुल ऐसा ही होता है| आगम के झरोके से यह स्पष्ट होता है कि सभी जीवों को कृत-कारित-अनुमोदना, इन तीनों के द्वारा पाप कर्म का आश्रव होता है| पाप को स्वयं करना अथवा किसी दूसरे के द्वारा करवाना अथवा किसी के द्वारा किए गए पाप की प्रशंसा करना, इन सभी में महापाप का बंध होता है| 
 
हम सभी को अपने अन्तरंग में झाँककर यह भली प्रकार से देख लेना चाहिए कि हम कब, कहाँ और किस प्रकार से पाप कर्म का बंध कर रहे हैं| जीवन में सदैव सचेत अवस्था में रहकर पाप से बचते हुए अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अविरल बढ़ते रहना चाहिए| आचार्यों ने कहा है कि एक मूर्छित व्यक्ति दस मुर्दों से भी ज्यादा खतरनाक होता है| उदाहरण के माध्यम से समझें, यदि हम मस्ती में टहलते हुए चल रहे और हमारे क़दमों के नीचे किसी जीव का घात नहीं हुआ वही दूसरी ओर हम सचेत होकर चल रहे है और फिर भी हमारे द्वारा किसी जीव को नुक्सान हो गया तो पहली स्थिति में हमें ज्यादा पाप लगेगा वनस्पत दूसरी स्थिति के| कारण है हमारी नादानी, हमारी अज्ञानता, हमारी असावधानी| अक्षय तृतीया के इस परम पुनीत दिवस पर हम सभी को यह अवश्य समझना होगा कि कर्मों के बही-खाते से कोई भी जीव नहीं बच सकता तथा अपने जीवन में सदा सावधानी रखते हुए आत्म-कल्याण के लिए अग्रसर  रहना चाहिए|
किसी महापुरुष के अवतारी से कम नहीं हैं 
ऐलाचार्य श्री 108 अतिवीर जी मुनिराज
- विजेन्द्र जैन ‘शील’
आज की कलयुगी, आतंक और पाखंड से भरी दुनिया में सच्चे धर्मगुरुओं, साधुओं, समाजसेवियों, राजनेताओं और आम व्यक्ति की पहचान करना भी बेहद मुश्किल हो गया है| इसका एक बड़ा कारण है लोगो के दिलों में दिखावटीपन की बढती प्रवृत्ति| फिर चाहे वह कोई राजनेता हो, साधु हो, पाखंडी हो या फिर भ्रष्ट राजनेताओं के हाथों की कटपुतलियाँ| जो भी सपनों की दुनिया की सैर कारा दे, आज के लोग उसी के पीछे भागना शुरू कर देते हैं, भले ही बाद में लकीर को पीटने वाली बात करते रहें|
आज भी ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं, जो लोगों का सही मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं| लेकिन उनके कथीर, स्वच्छ और सच्चे विचार दिखावटी लोगों को पसंद नहीं आते| उनके विचार में ऐसे साधुओं का लोगों धर्मावलम्बियों के प्रति कोई आस्था नहीं| ऐसे लोग शायद यह भूल जाते हैं कि जीवन की सबसे बड़ी बीमारी कही जाने वाली मधुमेह (शूगर) का इलाज सिर्फ कडवी औषधियों से ठीक हो सकता है| इसी प्रकार आज के दौर में लोगों के भीतर जिस प्रकार कुसंस्कार पनप रहे हैं, उन्हें कडवे वचनों के द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है|
ऐसे ही कडवे वचनों के लिए प्रसिद्ध लेकिन शुद्ध विचारों की परम्परा में अपना स्थान बनाने वाले ऐलाचार्य श्री अतिवीर जी महाराज भी ऐसे मुनिजनों में से हैं, जो दिन-रात की साधना और तपस्या का फल अपने भक्तों के बीच बाट कर उन्हें सदमार्ग की ओर ले जा रहे हैं|
गृहस्थ परिवार से ब्रह्मचारी बने और फिर वीरता का परिचय देते हुए वीर बनकर अतिवीर बने ऐलाचार्य श्री अतिवीर जी महाराज उन वैरागियों में से हैं, जिन्होंने मुनि दीक्षा के बाद लोगों को जीना सिखाया| लोगों में अपनी कथीर तपस्या का फल बाट रहे हैं|
ऐलाचार्य श्री अतिवीर जी जिस प्रकार कठोर तपस्या कर रहे हैं, उसी कठोर वाणी से उसे लोगो में वितरित कर उसका पालन करने में अहम् भूमिका निभा रहे हैं| ऐलाचार्य श्री को अपनी तपस्या के समय इस प्रकार की बातों से कोई सरोकार नहीं है कि उनके ऊपर कोई ठंडी हवा कर रहा है या कोई गरमा हवा कर रहा है| ऐलाचार्य श्री अपना ध्यान विचलित किए बिना सिर्फ अपनी तपस्या में लीन रहते हैं|
ऐलाचार्य श्री अतिवीर जी को यदि किसी महापुरुष का अवतारी कहा जाये, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी| एक ओर आचार्य श्री विद्यासागर जी जंगलों में तपस्या के द्वारा लोगों का मार्गदर्शन कर रहे हैं, वहीँ दूसरी ओर आचार्य श्री सन्मति सागर जी महाराज के विद्वान् शिष्य ऐलाचार्य श्री अतिवीर जी महाराज गृहस्थ परिवार को सन्मार्ग एवं धार्मिक प्रवृत्ति की ओर ले जाने के लिए कस्बों, बस्तियों और शहरों का भ्रमण करने में अपनी वीरता का परिचय दे रहे हैं| 
वीरता दिखाकर वीर बने और वीर से बने अतिवीर किसी अवतारी के र्रोप से कम नहीं लगते| विद्वान् एवं स्वच्छ विचारों की ओर लोगों की आस्था कम होती जा रही है| लोगों की आस्था दिखावे में ज्यादा है| जब तक धर्मावलम्बी विद्वान् मुनिजनों के संपर्क में नहीं आएंगे, उन्हें सन्मार्ग कैसे प्राप्त होगा| आवश्यकता है तो सिर्फ सच्चे और शुद्ध विचारों के मुनिजनों की|